पौराणिक कथा
राजा बलि की इन्द्र को शिक्षा
एक दिन देवराज इन्द्र ने ब्रहमाजी के पास जाकर प्राथना की कि उन्हें दानी राजा बलि का पता बता दें । ब्रह्माजी ने कहा कि तुम्हे बली से शत्रुता नहीं करनी चाहिए, उनका अनिष्ट करने के बजाए तुम्हें उनसे नीति और धर्म की शिक्षा लेनी चाहिए। वैसे राजा बलि इस समय ऊंट, बैल, गधा या घोड़ा बनाकर किसी निर्जन वन में रहते हैं।
"यदि वह मुझे मिल जाते हैं तो मैं उनका वध करूं या नहीं?" इन्द्र ने पूछा ।
क्या कहते हो, के कदापि मारने योग्य नहीं है । " ब्रह्मा जी ने उतर दिया । इन्द्र ने विदा ली ।
देवराज इन्द्र ऐरावत हाथी पर सवार होकर राजा बली की खोज में निकल पड़े ! उन्हें एक निर्जन मकान में गधा दिखाई दिया । उन्होंने कुछ देर तक गोर से देखने के बाद यह अनुमान लगा लिया कि यही राजा बली है ।
इन्द्र ने समीप पहुंचकर कहा, " दानवराज ! इस समय तुमने बड़ा विचित्र वेष रखा है, क्या तुम्हें अपनी इस दुर्दशा प्र दुःख नहीं होता? इस समय तुम्हरा छत्र, चामर और वैजुंतिमाला कहां है?
कहां गया दान का महाव्रत और कहां गया तुम्हारा सूर्य, वरुण, कुबेर, अग्नि और जल का रूप?"
बलि ने बड़े धीर - गम्भीर भाव से कहा – "देवेन्द्र ! इस समय तुम मेरे छत्र, चामर, सिंहासनादि उपकरण नहीं देख सकोगे । पर कभी मेरे दिन लौटेंगे और तब उन वस्तुओं को तुम्हें दिखा सकूंगा ! इस समय अपने ऐश्वर्य के मद से आकर मेरा उपहास कर रहे हो, यह केवल तुम्हारी दुर्बुधी का ही परिचालक है। लगता है कि तुम अपने पिछले जीवन को बिल्कुल ही भूल गए। पर इतना स्मरण रखो कि तुम्हारे के दिन पुनः लौटेंगे। इस विश्व में कोई वस्तु सुनिश्चित और सुसिथर नहीं है। काल सबको नश्ट कर डालता है, उसके अद्भुद धनी, निर्धन, बली - निर्बल, पंडित, मूर्ख, रूपवान, कुरूप, भाग्यवान और भाग्यहीन, तपस्वी, धर्मशाला, वृद्ध, योगी, बालक और युवा एवं सोच बिल्कुल नहीं करता। काल के ही कारण मनुष्य को लाभ–हानि, सुख–दुःख की प्राप्ति होती है, वही सबको देता और सबसे छीन लेता है। तुम्हारा अहंकार, पुरुषार्थ का अभिमान केवल मोह मात्र है किसको कब ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है किसका कब विनाश होता है यह किसी के अधीन नहीं है। मनुष्य की उन्नति और अवनति समय–समय पर होती रही है। समय पर ऊंचे से ऊंचा पद मिलता है और समय ही गिरा देता है यह तो उन्हें भी भलीभांति मालूम है। न सदा किसी की उन्नति होती है और न सदा अवनति।"
"देवेन्द्र! तुम जानते ही हो कि एक दिन तीनों लोक मेरे अधीन थे, देव, पितर, गंधर्व, मनुष्य, नाग और रक्षाश तक। यहां तक कि जिस जिस दिशा में मै रहता था, उस दिशा को भी लोग नमस्कार करते थे। मेरा भी समय पलटा–में इस दशा में पहुंच गया। मुझमें अकेले बारह सर्यों का तेज विद्यमान था, मेरे ही द्वारा तीनों लोक आलोकित होते थे, में ही उन्हें प्रकाशित करता था। अतः काल ही प्रबल है उसके सामने पर्वत और राई बराबर है। समय आने पर मैं प्रभूतव्हिन हो गया।"
"इन्द्र, तुम्हारी बालकों जैसी पर मुझे तरस आता है। तुम नहीं जानते, अब तक तुम्हारे जैसे हजारों इन्द्र हुए और नस्ट हो चुके। जो कुछ भी तुम्हारे पास है यह तुम्हारा नहीं है। राज्य लक्ष्मी, सौभाग्यश्री भी तुम्हारी नहीं है यह तुम्हारे पुर्वृती के पास रही। मेरे पास भी थी — आज तुम्हारे पास है, फिर दूसरे के पास होगी। मुझे यह रहस्य मालूम हो गया है इसलिए में किचिन मात्र भी दुःखी नहीं हूं। बहुत से धर्मात्मा राजा अपने योग्य मंत्रियों के बावजूद समस्याओं से घिरे और परेशान रहते हैं जबकि कतिपय नीच कुल में उत्तपन मनुष्य बिना किसी सहयोग और सहायता के राजा तक बन गए। यही नहीं सुंदर लक्षणों और पतिवृत धर्मपलन करने वाली परम सुंदरियां दुर्भाग्य के दिन काटती है तथा कुलटा और कुरूपा स्त्रियों भाग्यवान बनकर राज करती हैं यदि इसमें काल कारण नहीं तो फिर क्या हैं?"
"आज तुम ब्रज उठाकर मेरे सामने खड़े हो, अभी चाहूं तो तुम्हें धरती पर गिरा सकता हूं, अनेक रूप धारण कर सकता हूं जिसे देखने मात्र से तुम डरकर भाग जाओगे
परंतु यह जानकर कि यह समय धेर्य से सेहने का है, पराक्रम प्रदर्शन का नहीं। इसीलिए गधे के रूप में आध्यात्मरत हूं। मेरे शोक करने से दुःख मिटेगा नहीं, बह तो और बेग से बढ़ेगा। इसिसे मैं इस दुरवस्था में भी निश्चिंत हूं।"
बाली के विचारों को सुनकर इन्द्र का गर्व भंग हुआ, उन्होंने वर्ज अपने स्थान पर रख लिया और हाथ जोड़कर उनकी सराहना करने लगे। उन्होंने कहा, "निसंदेह तुम बड़े धेर्यवान हो कि वर्ज देखकर भी विचलित नहीं हुए ! तुम रोग – द्वेष शून्य हो। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं। आज से तुम मुझे अपना मित्र एंव हितैषी समझो–तुम्हारा कल्याण हो।" यह कहकर इन्द्र एरावत पर बैठकर चले गए। राजा बलि पुन भगवत्स्वरूप के चिंतन में स्थिर हो गए।∆